जब अफीम ने खाए किसान
ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल में अफीम का ज्यादातर कारोबार हथियाने बाद
उसकी व्यावसायिक खेती का नया क्षेत्र विकसित करने के लिए अवध की राह
पकड़ी। उसकी उम्मीदें आसमान छू रही थीं, लेकिन हालात इतने प्रतिकूल थे कि
उसके अरमान पूरे नहीं हुए। सूबे में अफीम की खेती और कारोबार, दोनों को बुलंदी
तक पहुंचाने के लिए कंपनी को 1857 के गदर के बाद तक इंतजार करना पड़ा।
इतिहास गवाह है, कंपनी ने अवध में अपने प्रभुत्व का लगातार विस्तार करते हुए
1856 में उसके नवाबों को सत्ता से पूरी तरह बेदखल कर दिया था। हालांकि थोड़े
ही दिनों बाद क्रांति हो गई। कंपनी ने इसे
कुचला जरूर, लेकिन उसके भी शासन का
अंत हो गया। ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया
ने भारत की बागडोर अपने हाथों में ले ली।
इसके बाद ही अवध को अफीम की खेती
और कारोबार का ऐसा अभिशाप झेलना
पड़ा, जिसने उसके सामाजिक-सांस्कृतिक इस आलेख को विस्तार
और आर्थिक ताने-बाने को गंभीर चोट से सुनने या पढ़ने के लिए
पहुंचाई। साथ ही कई बार अकाल के हवाले लॉग ऑन कीजिए
भी कर दिया। यह वह दौर था, जब ब्रिटेन
भारत से अफीम भेजने को लेकर चीन से
पर, जहां ऐसे अनेकों
1839-1842 और 1856-1860 के बीच दो आलेख और पॉडकास्ट
अफीम युद्ध लड़ चुका था। इनमें हार झेलने खास आपके लिए पेश हैं
वाले चीन को अपने पांच बंदरगाह उसके
व्यापार के लिए खोलने पड़े। तब ब्रिटेन
चाय, रेशम, कागज, कपूर और इत्र वगैरह
के लिए चीन पर ही निर्भर था। इनके बदले
चीन को चांदी के बजाय अफीम देना उसे
बहुत रास आता। चीनी शासकों के एतराज
के कारण उसे इसमें बाधाओं का सामना भी
करना पड़ा, लेकिन अफीम युद्ध जीतने के
बाद उसे इसकी खुली छूट मिल गई।
तब उसने भारत में अफीम का उत्पादन बढ़ाने की परियोजना पर तेजी से
काम शुरू किया। जैसे चीन से चाय के आयात का बिल घटाने के लिए भारत में
चाय उत्पादन को प्रोत्साहित किया गया। शुरू में इस खेती के ज्यादातर लाइसेंस
गाजीपुर, मिर्जापुर, आजमगढ़, गोरखपुर, बस्ती, इलाहाबाद, सीतापुर, लखनऊ,
फैजाबाद, गोंडा, प्रतापगढ़ और रायबरेली जिलों की कोइरी, काठी, कुर्मी और माली
जातियों से आने वाले किसानों को दिए गए। इसे उनकी और सूबे की अर्थव्यवस्था
का सशक्तीकरण बताया गया। लेकिन इस खेती ने किसानों को मालामाल या
खुशहाल बनाने के बजाय बदहाल ही किया। कारण यह कि नकदी मिलते ही
ब्रिटिश उत्पादों के नए ग्राहक बन गए।
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