लॉकडाउन से भविष्य
विडियो पर आई टिप्पणियों में दो छोर दिखाई पड़ते हैं। एक इस परिवार की स्थिति पर दयार्द्र होने का- ‘यह महामारी जो न करा दे। बताओ, जो लड़के-लड़कियां दिल्ली में ही जन्मे हैं, खेत की शक्ल भी कभी नहीं देखी, उनके ऐसे दुर्दिन कि आज धूप में परती तोड़ रहे हैं, घास बीन रहे हैं!’ दूसरा छोर प्रकृतिवादियों का है- ‘ठीक ही तो है। शहर क्या दे रहा था इन्हें। धूल, धुआं, प्रदूषण, कमराबंद जिंदगी और दिन-रात काम की किचकिच। यहां वे प्रकृति के बीच में हैं। अच्छा हवा-पानी और बीमारी का कुछ खास खतरा भी नहीं। सबसे अद्भुत बात यह कि कोरोना का प्रकोप बढ़ने के साथ ही पहाड़ों के निर्जन हो चुके गांव भी आबाद होने लगे हैं। इसे प्रकृति की ओर वापसी क्यों न कहा जाए?’ खुद इस परिवार के मन की थाह ले सकें, इतना धीरज न विडियोकार में है न टिप्पणीकारों में।
दिल्ली में पान की दुकान चलाने वाले बीरबल चौरसिया आजकल पूर्वी यूपी के प्रतापगढ़ जिले में स्थित अपने गांव सेतापुर में बिराजे हुए हैं और बता रहे हैं कि उनके यहां तो तकरीबन हर घर बमगोला हुआ पड़ा है। दूर-दूर के शहरों से परिवार हजार तकलीफें झेलकर अपने घर तो पहुंच गए लेकिन इस गर्मी में दोनों टाइम लकड़ी और कंडे वाले चूल्हे पर धुएं के बीच पचास-पचास रोटियां सेंकने को लेकर महिलाओं में भयंकर तनाव है। जीवन इस उम्मीद में कट रहा है कि बाहर से आए लोग कुछ दिन में चले जाएंगे। सबसे बुरा हाल बगल में फकीरों के गांव सरदहा का है, जहां पिछली पीढ़ी का गुजारा झाड़-फूंक से हो गया लेकिन नई पीढ़ी के लोग पास के बाजारों में छोटी-मोटी चीजें बेचते हैं या गांवों में फेरी लगाते हैं।
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